Thursday, July 15, 2010

किसने ये सोचा था

किसने ये सोचा था अब तक यूँ होगा अलगाव बहुत
फूल, फूल को दे जायेंगे काँटों जैसे घाव बहुत

इस तट से उस तट तक जाना अब मुश्किल -सा लगता है
मांझी चुप, पतवारें टूटी, हैं कागज़ की नाव बहुत

इर्ष्या,द्वेष,जलन औ कुंठा , भाव ये सारे चंचल हैं
एक प्रीत ही इनमे ऐसी जिसमें है ठहराव बहुत

खाली सागर से अब क्यूँ तुम मांग के पानी पीते हो
हम तो हैं उस घट के प्यासे जिसमे है छलकाव बहुत

जिसको तेरा दिल माने तू काम वही करना ए 'रमा'
पाप- पुण्य के जंगल में मिलते रहते भटकाव बहुत

बंद करके हादिसो के

बंद करके हादिसो के अब ये तहखाने सभी
आईये खोलें मोहब्बत के ये मयखाने सभी

हम सियासत की अँगुलियों पर कभी नाचे नहीं
कह रहे हमसे छलक कर आज पैमाने सभी

ग़म से घबरा कर चले आये हैं मयखाने में हम
अब जहाँ आते हैं अपने दिल को बहलाने सभी

जन्म से हर एक धड़कन दर्द मे उलझी मिली
पर उसे भी आ गए हैं लोग बहकाने सभी

आग से ताप कर जो निकला वो 'रमा' कंचन हुआ
इस हकीक़त को बहुत ही देर मे माने सभी

दर्द मे लिपटी ग़ज़ल है

दर्द मे लिपटी ग़ज़ल है अब हमारी आपकी
लिख रही केवल असल है अब हमारी आपकी

जिस तरफ देखो नज़ारा एक ही मिल जायेगा
हर कोई करता नक़ल है अब हमारी आपकी

प्यार मे जब तक अहं था तब तलक मुश्किल लगी
राह ये कितनी सरल है अब हमारी आपकी

आपके ये रंग जब तक ज़िन्दगी के साथ हैं
हर सुबह मीठी तरल है अब हमारी आपकी

कल 'रमा' रंगीन सपने ही जहाँ देखे गए
आज क्यों आँखों मे जल है अब हमारी आपकी

Wednesday, July 14, 2010

कब तक ये हंस करके टाले

कहो कोई कब तक ये हँस करके टाले
जहाँ ने सदा हम पे पत्थर उछाले
लगाता है ठोकर जिन्हें ये ज़माना
उन्हें बढ़ के कोई गले से लगा ले
बड़ी मुश्किलों से तुझे मिल सकी है
मोहब्बत की दौलत छुपा ले,छुपा ले
न दस्तक ही देंगे न आवाज़ होगी
दबे पांव आयेंगे ग़म आने वाले
इसे ज़िद कहो या की फ़ितरत हमारी
की कांटे भी खुद फूल बन कर निकाले
करें क्या शिकायात हम अपनी किसी से
सभी ले के बैठें हैं खुद अपने छाले
'रमा' में भी आंसू का दरिया बहा है
उसे आज चाहे तो सागर चुरा ले

तू बस एक कहानी बन जा

तू बस एक कहानी बन जा
इन आँखों का पानी बन जा

जिसमें केवल ख्वाब हों उसके
ऐसी नींद सुहानी बन जा

क्या मैं आज तुझे समझाउं
तू ही प्यार का मानी बन जा

हिन्दू और न मुस्लिम बन अब
तू कबीर की बानी बन जा

भूल न पाए 'रमा' जिसे जग
ऐसी एक कहानी बन जा

आंसुओं के घर में भी

आंसुओं के घर में भी ज़िन्दादिली की बात कार
ये घुटन वाले हैं घर तू रोशिनी की बात कार

हर कदम पे मौत मेरे साथ में चलती ही है
इसलिए कहती हूँ तुझसे ज़िन्दगी की बात कार

दर्द अपना, आह अपनी मन के घर में बंद रख
यों न हर पल जग से अपनी बेबसी की बात कर

ज़िन्दगी जीने का तू ये भी सलीका सीख ले
सब के संग नेकी ही कर,तू मत बदी की बात कर

ये बनावट बाँट देगी तुझको टुकड़ो में 'रमा'
हो सके तो सादगी से सादगी की बात कर

मेरे मन मे झाँक के देखो

मेरे मन मे झाँक के देखो कितने प्यारे से हो तुम
जिसकी अनगिन छवियाँ है उस एक नज़ारे से हो तुम

जिसमे कोई शब्द नहीं है और न स्वर ही है कोई
चुप रह कर भी बोले ऐसे एक इशारे से हो तुम

हम दोनों के बीच अनोखी नदिया बहती रहती है
एक किनारे जैसे हूँ मैं ,एक किनारे से हो तुम

तुम्हे सहेजे रखना कितना मुश्किल ,कितना मुश्किल है
मनहै कम्पित एक हथेली,चंचल पारे से हो तुम

एक अँधेरी धरती ,सूरज के उजियारे से बोली
जिसको छूकर ठंडक मिलती उस अंगारे से हो तुम

शब्द नहा कर जिसमे देखो मंत्र स्वयं बन जाते हैं
ऐसी पावन स्वर गंगा के पावन धारे से हो तुम

ढाई आखर प्रेम का जिसमे गूँज रहा है सदियों से
इस दुनिया के मन मंदिर में प्रिय इक तारे से हो तुम


Monday, July 5, 2010

सारी गलियाँ सूनी

सारी गलियाँ सूनी-सूनी, हर बस्ती वीरान लगी
अब तो हर पहचानी सूरत भी मुझको अनजान लगी

क्या बतलाएँ जब भी बादल आँसू बनकर बरसे हैं
उनकी रिमझिम भी सागर को एक नया तूफ़ान लगी

जब भी कोई रस की प्याली रस छलकाकर टूट गई
मुझको जाने क्यों वह तेरा टूटा-सा अरमान लगी

पहले तो हर मुश्किल मुझ पर पत्थर बनकर गिरती थी
जब से तुम हो साथ हमारे हर मुश्किल आसान लगी

तुझसे अपनी कहकर अपना जी हल्का कर लेते हैं
पर तेरी हर पीड़ा मुझको जीवन का अवसान लगी

यों न होठों से

यों न होठों से ही बस लब्ज़े-मुहब्बत बोलते
बात तो तब थी जो बन के मेरी किस्मत बोलते

राह का पत्थर समझ कर तुमने तो ठुकरा दिया
जो तराशा तुमने होता बन के मूरत बोलते

पत्थरों के देश में ये आइने क्यों चुप रहे
टूटना ही था जो गिर के, कैसी दहशत, बोलते

फूल के होठों की छुअनें गर मिली होतीं तो फिर
कोरे-कागज़ भी ये बन कर प्यार का खत बोलते

बोलना ही था 'रमा' तो इस जहाँ के सामने
तेरे चेहरे में बसी है उसकी सूरत बोलते

पेड़ जब धूप से जलने लगे

पेड़ जब से धूप में जलने लगे हैं
लोग राहें छोड़कर चलने लगे हैं

क्या न जाने हो गया इन उपवनों को
फूल ही अब फूल को छलने लगे हैं

बन्द कर पलकें उन्हें रोका तो लेकिन
अश्रु अपने आप ही ढलने लगे हैं

यह तो माना है बहुत खामोश सागर
किन्तु, उनमें ज्वार भी पलने लगे हैं

हर नदी बहती रहे अपनी तरह से
पर्वतों के हिम-शिखर गलने लगे हैं

धूप का घर

धूप का घर है मगर हम फिर भी आएँगे ज़रूर
छाँह में उसकी ये अपना तन जलाएँगे ज़रूर

आँधियाँ कहने लगीं उड़ते हुए पक्षी से फिर
तुम उड़ो, लेकिन तुम्हें हम आज़माएँगे ज़रूर

आज ऐसे रूठ कर जाने न देंगे हम तुम्हें
अश्क हो तुम, आज हम तुमको मनाएँगे ज़रूर

दूर से ही प्यार की छुअनों को तुमसे माँग कर
रोज़, बेंदी की तरह उनको सजाएँगे ज़रूर

आज होंठों पर मेरे जो है हज़ारों कहकहे
मुझको लगता है कि वो इक दिन रूलाएँगे ज़रूर

हर तरफ़ तूफ़ान है, भूचाल का आतंक है
नींव की इंटों को हम फिर भी बचाएँगे ज़रूर

चाहे कितने भी ये आँसू आँख में आते रहें
फिर भी हम होठों पे अपने मुस्कराएँगे ज़रूर

हम भले ही चोट खा बैठें मगर फिर भी 'रमा'
बीच की दीवारों को इक दिन हटाएँगे ज़रूर

दिल में हमने

दिल में हमने जब भी झाँका बस मिलन की चाह थी
दूसरा कोई न था बस आह केवल आह थी

ध्यान में उसके जो डूबे डूबते ही हम गए
वो तो ऐसा सिन्धु था जिसकी न कोई थाह थी

वो बड़ा अनमोल है उसको न कोई लूट ले
दूर रहकर भी मुझे उसकी ही बस परवाह थी

कौन से जंगल में जाने हम भटक कर रह गए
शब्द की पगडंडियों पर जब कि अपनी राह थी

इन ग्रहों के खेल में हम पे जो बीती क्या कहें
एक तो वो रात थी उस पर वो कितनी स्याह थी

जैसी भी तमन्ना हो

जैसे भी तमन्ना हो वैसी ही सजा दीजे
कुछ और न कर पाओ मरने की दुआ दीजे

तुम मेरे हो, अपने हो, इतना तो भला कीजे
इन साँसों के पिंजरे से पक्षी को उड़ा दीजे

तुम प्यार के मन्दिर हो कुछ और ना माँगेंगे
जितना भी हँसाया है उतना ही रूला दीजे

हमने भी बहारों के गाए थे तराने कुछ
उजड़े हुए गुलशन को इतना तो बता दीजे

तुमने भी पढ़ा होगा इस दिल पे लिखे खत को
गर रास न आया हो, चुपचाप जला दीजे

डूबा है 'रमा' कोई एहसास के सागर में
पाना है अगर उसको, ध्यान उसमें रमा दीजे

ऐ सुबह

ऐ सुबह कल फिर से आना राह देखेंगे तेरी
रात से उलझी रही वो चाह देखेंगे तेरी

दुख का विप पीकर भी तूने प्यार ही बाँटा सदा
फिर भी जो उपजी है मन में राह देखेंगे तेरी

पास आकर एक सागर से नदी ने यह कहा
डूबने दे मुझको खुद में, थाह देखेंगे तेरी

बेवजह तोड़े किसी ने फूल जब भी डाल से
उस घड़ी दिल से निकलती आह देखेंगे तेरी

हो गई पूरी गज़ल तो देख लेना ऐ 'रमा'
प्यार से निकली हुई हर वाह देखेंगे तेरी

आँख से आँसू

आँख से आँसू जो तुमने चुन लिए
ख़्वाब मेरे साथ कितने बुन लिए

दो तटों के बीच सोई थी नदी
आज फिर जागी नई-सी धुन लिए

एक मौसम जब से कुछ समझा गया
झूमते हैं मन में इक फागुन लिए

लाख चाहा था छुपा लूँ मैं इन्हें
फिर भी सारे गीत तुमने सुन लिए

रोज़ आते हैं किसी के दो नयन
साथ भँवरे की नई गुन-गुन लिए

अब सुहानी शाम

अब सुहानी शाम गहराने लगी है
चाँदनी ये मुझको समझाने लगी है

लो हवा के होंठ भी गाने लगे हैं
याद अपनों की बहुत आने लगी है

अपनी पलकों का ही घूँघट ओढ़कर अब
चुपके-चुपके आँख शरमाने लगी है

क्या हुआ है जो मेरी आँखों की गागर
आँसुओं का नीर छलकाने लगी है

बन्द कमरे में घुटी ये साँस मेरी
ज़िन्दगी का द्वार खटकाने लगी है

फूल-सी आँखों में अब तक खिल रही थी
क्यों दिये की लौ वो मुरझाने लगी है

रात दुल्हन सी सजी

रात दुल्हन सी सजी तो मन को मेरे भा गई
दिल की धड़कन सो रही थी जागकर शरमा गई

एक सूनापन था मेरे मन के कमरे में अभी
याद तेरे प्यार की कुछ चूड़ियाँ खनका गई

हमने सोने की अभी तैयारियाँ भी की न थीं
भोर भी बीती न थी और शाम सम्मुख आ गई

मुझ पे कुछ कागज के टुकड़े और दो एक शब्द थे
तेरी नज़रों की छुअन छूकर उन्हें महका गई

इस कदर गर्मी मिली सागर को सूरज से कि फिर
एक बदली सी उठी पूरे गगन पर छा गई

कितनी मुश्किल से बचाया था रमा आँसू का जल
नैन की गागर को तेरी याद फिर छलका गई

Sunday, May 23, 2010

मुक्तावली

मौन का आसमान होता है,
आंसुओं में बयान होता है।
है उससे जाना बहुत मुश्किल,
दर्द तो बेजुबान होता है।

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ना तो अपनी है न पराई है,
साँस दर साँस ये समाई है।
मौत अपना पता नहीं देती,
इसकी सबसे ही आशनाई है।

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