Friday, February 21, 2014

चारो और अंधरे घेरे
रहे उजाले भी मुंह फेरे
कैसे गीत रुपहले गाऊँ
कैसे अपना दिल बहलाऊँ

आज हवा फिर गर्म बही है
अंगारों ने बांह गहि है
भ्रम के फेले हुए क्षितिज पर
कौन गलत हे कौन सही है
वैसे दर्पण हैं बहुतेरे
अक्स हिलाते रहे सवेरे
मैं भी इनको समझ न पाऊं
कैसे अपना दिल बह्लाऊँ
 
 
 
 
आंधी ,धुंध ,धुँआ और काजल
उमड़ रहे हैं काले बादल
विष बनती अमृत -सी बूंदे
झिर -झिर हे सिंदूरी आँचल
जले हुंए हैं रैन  बसेरे
दूर तलक पत्थर के डेरे
देख इन्हें मैं डर-डर जाऊं
कैसे अपना दिल बहलाऊ
 
 
सारे जग की एक कहानी
फीकी पड गई चूनर धानी 
अधरों ने रह मौन कहा है
पढ़ लो तुम आँखों का पानी
दर्द हुए हैं और घनेरे
रहते हैं संग तेरे मेरे
इनको कैसे मैं बिसराऊँ
कैसे अपना दिल बहलाऊँ