Thursday, July 15, 2010

किसने ये सोचा था

किसने ये सोचा था अब तक यूँ होगा अलगाव बहुत
फूल, फूल को दे जायेंगे काँटों जैसे घाव बहुत

इस तट से उस तट तक जाना अब मुश्किल -सा लगता है
मांझी चुप, पतवारें टूटी, हैं कागज़ की नाव बहुत

इर्ष्या,द्वेष,जलन औ कुंठा , भाव ये सारे चंचल हैं
एक प्रीत ही इनमे ऐसी जिसमें है ठहराव बहुत

खाली सागर से अब क्यूँ तुम मांग के पानी पीते हो
हम तो हैं उस घट के प्यासे जिसमे है छलकाव बहुत

जिसको तेरा दिल माने तू काम वही करना ए 'रमा'
पाप- पुण्य के जंगल में मिलते रहते भटकाव बहुत

7 comments:

  1. आप बहुत अच्छा लिखते हैं.

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  2. वाह, रमा जी,
    बढ़िया ग़ज़ल के लिए बधाई.

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  3. वाह ........शानदार भावाभिव्यक्ति के लिए बधाई स्वीकार करें !!

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  4. पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ शायद, बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने। ब्लॉग की अन्य रचनाएं भी पढ़ी। बहुत प्रभावकारी लेखन है आपका। बधाई !

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  5. अच्छी ग़ज़ल के लिए
    बधाई .

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  6. किसने ये सोचा था अब तक यूँ होगा अलगाव बहुत
    फूल, फूल को दे जायेंगे काँटों जैसे घाव बहुत

    बहुत खूब,रमा जी.पूरी ग़ज़ल लाजवाब है.
    आपकी कलम को शुभ कामनाएं.

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  7. .




    जिसको तेरा दिल माने तू काम वही करना ए 'रमा'
    पाप- पुण्य के जंगल में मिलते रहते भटकाव बहुत


    वाह वाऽऽह ! बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल है… बधाई !

    …और दानिशजी जैसे हुनरमंद ग़ज़लकार की दाद मिलना अपने आप में बहुत बड़ा इनआम है …
    आपने सचमुच बहुत उत्कृष्ट लिखा है ।

    आपकी अन्य रचनाएं भी पढ़ीं … सब आपकी परिपक्व लेखनी का पुख़्ता प्रमाण हैं …

    हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !



    रक्षाबंधन और स्वतंत्रता दिवस की मंगलकामनाओ के साथ

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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