Monday, July 5, 2010

धूप का घर

धूप का घर है मगर हम फिर भी आएँगे ज़रूर
छाँह में उसकी ये अपना तन जलाएँगे ज़रूर

आँधियाँ कहने लगीं उड़ते हुए पक्षी से फिर
तुम उड़ो, लेकिन तुम्हें हम आज़माएँगे ज़रूर

आज ऐसे रूठ कर जाने न देंगे हम तुम्हें
अश्क हो तुम, आज हम तुमको मनाएँगे ज़रूर

दूर से ही प्यार की छुअनों को तुमसे माँग कर
रोज़, बेंदी की तरह उनको सजाएँगे ज़रूर

आज होंठों पर मेरे जो है हज़ारों कहकहे
मुझको लगता है कि वो इक दिन रूलाएँगे ज़रूर

हर तरफ़ तूफ़ान है, भूचाल का आतंक है
नींव की इंटों को हम फिर भी बचाएँगे ज़रूर

चाहे कितने भी ये आँसू आँख में आते रहें
फिर भी हम होठों पे अपने मुस्कराएँगे ज़रूर

हम भले ही चोट खा बैठें मगर फिर भी 'रमा'
बीच की दीवारों को इक दिन हटाएँगे ज़रूर

No comments:

Post a Comment