Monday, July 5, 2010

रात दुल्हन सी सजी

रात दुल्हन सी सजी तो मन को मेरे भा गई
दिल की धड़कन सो रही थी जागकर शरमा गई

एक सूनापन था मेरे मन के कमरे में अभी
याद तेरे प्यार की कुछ चूड़ियाँ खनका गई

हमने सोने की अभी तैयारियाँ भी की न थीं
भोर भी बीती न थी और शाम सम्मुख आ गई

मुझ पे कुछ कागज के टुकड़े और दो एक शब्द थे
तेरी नज़रों की छुअन छूकर उन्हें महका गई

इस कदर गर्मी मिली सागर को सूरज से कि फिर
एक बदली सी उठी पूरे गगन पर छा गई

कितनी मुश्किल से बचाया था रमा आँसू का जल
नैन की गागर को तेरी याद फिर छलका गई

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